यूँ तो पापा ज़्यादा शौकीन किस्म के व्यक्ति नहीं हैं, या यूँ कह लीजिये कि समय और ज़िम्मेदारी के बढ़ते बहाव के साथ उनके कुछ जो शौक थे वो कुछ पीछे छूटने लगे. लेकिन एक चीज़ जो मैंने बचपन से उनके सिराहने पाई है, वो है उनका रेडियो.
उस समय शायद एंटरटेनमेंट के इतने माध्यम नहीं हुआ करते थे या शायद यह भोपाल के कल्चर का ही हिस्सा शायद था कि वहाँ पर रेडियो और रेडियो प्रोग्राम्स काफ़ी शौक से सुने जाते थे. और इसी कल्चर में पला-बढ़ा मैं हमेशा अपने घर में एक ट्रांसिस्टर सेट को मौजूद पाता था. देश की सुरीली धड़कन विविध भारती के बहुत सारे प्रोग्राम्स जैसे हवामहल, गीतमाला, चित्रलोक, पिटारा, आज के फनकार से मेरा बचपन से ही तकल्लुफ रहा. समय-समय पर प्रसारित होने वाली न्यूज़ बुलेटिन भी कहीं ना कहीं मेरे कानों में सुनाई पड़ जाती थी. जुलाई-अगस्त के मौसम में जब बड़ा तालाब पानी से सराबोर हो रहा होता था, तो कई दफा शाम को लाइट चली जाती थी और तब इसी रेडियो के इर्द गिर्द बैठ कर हम तत्कालीन सरकार की खामियाँ निकाला करते थे. और न जाने कितनी बार रेडियो पर पापा के साथ क्रिकेट कमेंट्री भी सुनी, 2001 में लक्ष्मण के 281 रन और भज्जी की हैट्रिक तो कल की ही बात लगती हैं. 2002 के नेटवेस्ट फ़ाइनल में युवराज-कैफ़ की पारी उस फ़िलिप्स के रेडियो और पापा के साथ एक-एक शौट पर बजाई ताली के साथ, आज भी ज़हन में ताज़ी है.
समय बीता, और भोपाल में भी रेडियो मिर्ची इत्यादि प्राइवेट रेडियो चैनल आए. लड़कपन के जोश में मैं अब नए गाने और दुनिया भर की चटर-पटर सुनना चाहता था, जबकि पापा अपनी दिनचर्या कबकी विविध भारती के आस पास बुन चुके थे. इस समस्या का समाधान घर की न्यायाधीश अर्थात अम्मा ने यूँ निकाला कि जो सुबह पहले उठ कर रेडियो चालू करेगा, उस समय वही स्टेशन चलेगा. एक-दो दिन जल्दी उठने की सफ़ल कोशिश के बाद मैं भी 8 बजे की सुबह के न्यूज़ बुलिटिन की कमी महसूस करने लगा. और फ़िर अम्मा के हाथ की चाय और पापा के साथ सवेरे-सवेरे के समाचार मेरी भी दिनचर्या का हिस्सा बन गए.
कालचक्र के साथ सभी की व्यस्तता बढ़ती गईं. इंजीनियरिंग, नौकरी, एम. बी. ऐ. और अब फ़िर से नौकरी की इस चकरघिन्नी में सबसे अधिक अगर मैं कुछ अधूरा पाता हूँ तो वह सवेरे के वह पन्द्रह मिनट ही हैं. अब मैं समाचार ब्लूमबर्ग पर सुनता हूँ, बोहत सारे डेटा के साथ बातें होती हैं, एक आँख स्टॉक मार्केट पर रखता हूँ और दूसरी से चाय उफ़नने से बचाता हूँ. यूट्यूब, स्पौटिफ़ाई पर गानों की तो भरमार है, पर वो सुकून एक अर्से से कानों मसर्रत नहीं हुआ. अब तो खैर अगले महीने घर जा ही रहा हूँ. या तो अम्मा की चाय में कुछ अलग से पड़ता है, या फ़िर वो पापा के रेडियो का जादू है.
हैप्पी बर्थडे पापा. 💛
~ निशांत