Tuesday 7 August 2018

तुम बोहत देर लगाते हो

सन्डे का दिन था और हमारी आखिरी बची सिगरेट भी खत्म हो चुकी थी. और चूंकि शाम भी हो गई थी, सोचा कि बाहर ही हो आते हैं. और चूंकि बाहर जाना था, हम अनमने से ही तैयार होने लगे.

मुझे तैयार होने में और उसके तैयार होने में एक ज़ाहिर सा अंतर था. मैं पांच मिनट में जीन्स और शर्ट डालकर गाड़ी बुक करने लगा. पर पिछला संडे याद करके मैंने थोड़ा और इँतजार करना बेहतर समझा, और घर में चहलकदमी करने लगा.

"चलें?"

"हाँ, रुको. गाड़ी बुलाता हूँ!"

गाड़ी बुक हुई और लगभग आ ही गई थी, फिरोज़ पांच ही मिनट दूर था.

"अभी रुको, मैंने काजल तो लगाया ही नहीं"

मैं वहीं दरवाज़े से टिक कर खड़ा हो गया. जहाँ मैं खड़ा था, वहाँ से आईने में बस उसकी आँखें दिख रहीं थी; भूरी, शांतचित्त. लेकिन मुस्कुराती हुई सी, मानो कि मुझे चिढ़ा रहीं हों, कि मुझे तो इतना समय लगता ही है, अभी भी समझ नहीं आता क्या बुद्धु. घड़ी की टिक-टिक कुछ धीमी सी होने लगी, फिरोज़ का फ़ोन भी दो बार आ चुका था, पर हम वहीं उस पल में कुछ अटक से गए थे. हम कुछ बोल नहीं रहे थे पर सुनाई सब आ रहा था. काजल लगा कर, उसने मुस्कुराते हुए एक आसमानी रंग की बिंदी लगाई और अपना डुपट्टा सही करते हुई बाहर आने लगी.

"तुम बोहत देर लगाते हो"

~ निशांत

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