Saturday 22 April 2017

शहर

चल दिये तुम भी
अपना बोरिया बिस्तर उठाए
आए तो थे तुम बड़े शोर शराबे से
अब जा रहे हो यूँ पैर दबाए
जितना सोचा था मैंने
उससे तो तुमने काफ़ी कम ही दिन बिताए

क्या रास नहीं आया तुम्हें
मेरी इमारतें मेरी रौशनी या मेरे खाने?
तुम लोगों के लिये तो हैं ये सब
मेरे ठाठ बाठ और ये मैखाने

सुन ऐ शहर, अब तू बड़बड़ा मत!
हड़बड़ा मत, खड़बड़ा मत!
क्युँकि तुझे ज़रूरत मेरी नहीं
इन रौशनियों और मैखानों को चालू रखने की है
ताकि मेरे जैसे तो आते रहें
और तू आबाद रहे
और तू रहेगा भी
पर मुझे इन सब की आदत इतनी भी नहीं..

और हाँ तू थोड़ा दूर ही रहना अभी मेरे भोपाल से
तेरे जैसै एक और शहर की अभी हमें ज़रूरत नहीं..

अलविदा अहमदाबाद..

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