चल दिये तुम भी
अपना बोरिया बिस्तर उठाए
आए तो थे तुम बड़े शोर शराबे से
अब जा रहे हो यूँ पैर दबाए
जितना सोचा था मैंने
उससे तो तुमने काफ़ी कम ही दिन बिताए
क्या रास नहीं आया तुम्हें
मेरी इमारतें मेरी रौशनी या मेरे खाने?
तुम लोगों के लिये तो हैं ये सब
मेरे ठाठ बाठ और ये मैखाने
सुन ऐ शहर, अब तू बड़बड़ा मत!
हड़बड़ा मत, खड़बड़ा मत!
क्युँकि तुझे ज़रूरत मेरी नहीं
इन रौशनियों और मैखानों को चालू रखने की है
ताकि मेरे जैसे तो आते रहें
और तू आबाद रहे
और तू रहेगा भी
पर मुझे इन सब की आदत इतनी भी नहीं..
और हाँ तू थोड़ा दूर ही रहना अभी मेरे भोपाल से
तेरे जैसै एक और शहर की अभी हमें ज़रूरत नहीं..
अलविदा अहमदाबाद..
No comments:
Post a Comment