Saturday 15 July 2017

वो कमरा



मैं जब भी 
ज़िंदगी की चिलचिलाती धूप में तप कर 
मैं जब भी 
दूसरों के और अपने झूट से थक कर 
मैं सब से लड़ के ख़ुद से हार के 
जब भी उस एक कमरे में जाता था 
वो हल्के और गहरे कत्थई रंगों का इक कमरा 
वो बेहद मेहरबाँ कमरा 
जो अपनी नर्म मुट्ठी में मुझे ऐसे छुपा लेता था 
जैसे कोई माँ बच्चे को आँचल में छुपा ले 
प्यार से डाँटे 
ये क्या आदत है 
जलती दोपहर में मारे मारे घूमते हो तुम 
वो कमरा याद आता है 
दबीज़ और ख़ासा भारी 
कुछ ज़रा मुश्किल से खुलने वाला वो शीशम का दरवाज़ा कि जैसे कोई अक्खड़ बाप 
अपने खुरदुरे सीने में शफ़क़त के समुंदर को छुपाए हो 
वो कुर्सी 
और उस के साथ वो जुड़वाँ बहन उस की 
वो दोनों दोस्त थीं मेरी 
वो इक गुस्ताख़ मुँह-फट आईना 
जो दिल का अच्छा था 
वो बे-हँगम सी अलमारी 
जो कोने में खड़ी इक बूढ़ी अन्ना की तरह 
आईने को तंबीह करती थी 
वो इक गुल-दान 
नन्हा सा 
बहुत शैतान 
उन दिनों पे हँसता था 
दरीचा 
या ज़ेहानत से भरी इक मुस्कुराहट 
और दरीचे पर झुकी वो बेल 
कोई सब्ज़ सरगोशी 
किताबें ताक़ में और शेल्फ़ पर 
संजीदा उस्तानी बनी बैठीं मगर सब मुंतज़िर इस बात की 
मैं उन से कुछ पूछूँ सिरहाने 
नींद का साथी 
थकन का चारा-गर 
वो नर्म-दिल तकिया 
मैं जिस की गोद में सर रख के 
छत को देखता था 
छत की कड़ियों में न जाने कितने अफ़्सानों की कड़ियाँ थीं वो छोटी मेज़ पर 
और सामने दीवार पर 
आवेज़ां तस्वीरें मुझे अपनाइयत से और यक़ीं से देखती थीं मुस्कुराती थीं उन्हें शक भी नहीं था 
एक दिन 
मैं उन को ऐसे छोड़ जाऊँगा 
मैं इक दिन यूँ भी जाऊँगा 
कि फिर वापस न आऊँगा .
.
.
मैं अब जिस घर में रहता हूँ
बहुत ही ख़ूबसूरत है 
मगर अक्सर यहाँ ख़ामोश बैठा याद करता हूँ
वो कमरा बात करता था .
.
~ अख़्तह साब

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