Monday 18 September 2017

कबूतरखाने

छितराये हुए हैं मेरे आस पास
कई सारे कबूतरखाने
कुछ छोटे, कुछ बड़े
कुछ रंगीन, कुछ बेरंग
हैं ये कई सारे कबूतरखाने

और हम सभी कबूतर
बस लगे हैं ढ़ूढने में अपने-अपने कबूतरखाने

एक बात तो बताओ
एक आँगन और उसमें एक तुलसी का धरुआ
नहीं चाहिये क्या किसी को?
या इन खिड़कियों से टँगे हुए ही बस
गुटरगूँ करोगे ताउम्र?

पर पता तुमको भी है
और मुझको भी
कि फ़िलहाल तो ये कबूतरखाने ही
तुम्हारी भी ज़रूरत हैं
और मेरी असलियत भी

तो चलने दो फ़िलहाल तो यही ढ़़र्रा
इन कबूतरखानों का
पर इतना भी मन मत लगा लेना मेरे दोस्त
कि उस आँगन के बुलाने पर भी
तुम छोड़ ही न पाओ
ये कबूतरखाने

~ निशांत

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